Lekhika Ranchi

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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंः देवदास--14

देवदास ःशरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
14

दूसरे दिन वह क्षेत्रमणि के घर पर आ उपस्थित हुई। उसके पहले घर मे इस समय दूसरे लोग रहते थे। क्षेत्रमणि अवाक्‌ हो गया, पूछा-‘बहिन, इतने दिनो तक कहां थी?’

चन्द्रमुखी ने सत्य बात को छिपाकर कहा-‘इलाहाबाद थी।’

क्षेत्रमणि ने एक बार अच्छी तरह से सारा शरीर देखकर कहा-‘तुम्हारे सब गहने क्या हुए, बहिन?’

चन्द्रमुखी ने हंसकर संक्षेप मे उत्तर दिया-‘सब है।’

उसी दिन मोदी से भेट करके कहा-‘दयाल, मेरे कितने रुपये चाहिए?’

दयाल बड़ी विपद मे पड़ा, कहा-‘यही कोई साठ-सत्तर रुपये चाहिए। आज नही, दो दिनो के बाद दूंगा।’

‘तुम्हे कुछ न देना होगा, यदि मेरा एक काम कर दो।’

‘कौन काम?’

‘दो-तीन दिन के भीतर ही हम लोगो के मुहल्ले मे एक किराये का घर ठीक कर दो-समझे?’

दयाल ने हंसकर कहा-‘समझा।’

‘अच्छा घर हो, अच्छे-अच्छे बिछौने-चादर, चारपाई, लैम्प, दो कुरसियां, एक टेबिल हो-समझे?’

दयाल ने सिर नीचा कर लिया।

‘साड़ी, कुरती, श्रृंगारदान, अच्छे गिलट के गहने आदि कहां मिल सकते है?’

दयाल मोदी ने ठिकाना बता दिया।

चन्द्रमुखी ने कहा-‘तब वह सब भी एक सेट अच्छा-सा देखकर खरीदना होगा। मै साथ चलकर पसन्द कर लूंगी।’ फिर हंसकर कहा-‘मुझे जो-जो चाहिए सो तो जानते ही हो, एक दासी भी ठीक करनी होगी।’

दयाल ने कहा-‘कब चाहिए?’

‘जितना जल्द हो सके। दो-तीन दिन के भीतर ही ठीक होने से अच्छा होगा।’ यह कहकर उसके हाथ मे सौ रुपये का नोट रखकर कहा-‘अच्छी-अच्छी चीजे ले आना, सस्ती नही देखना।’

तीसरे दिन वह नये घर चली गयी। सारा दिन केवलराम को साथ लेकर अपनी इच्छानुसार घर को सजाया एवं सन्ध्या के पहले अपने को सजाने बैठी। साबुन से मुंह धोया, इसके बाद पाउडर लगाया, लाल रंग से पांवो को रंगा और पान खाकर होठ रंगे। फिर सारे अंगो मे आभूषण धारण किये, कुरती और साड़ी पहनी। बहुत दिन बाद आज केश संवारकर सिर मे टीका लगाया। आईने मे मुंह देखकर मन-ही-मन कहा-अब और न जाने और क्या-क्या भाग्य मे बदा है।

देहाती बालक केवलराम ने यह साज-बाज और पोशाक देखकर भीत भाव से पूछा-‘यह क्या, बहिन?’

चन्द्रमुखी ने हंसकर कहा-‘केवल, आज मेरे पति आवेगे।’

केवलराम विस्मय नेत्रो से देखता रहा।

सन्ध्या के बाद क्षेत्रमणि आया, पूछा-‘बहिन, अब यह सब क्या?’

चन्द्रमुखी ने मुख नीचा कर, हंसकर कहा-‘क्यो, यह सब अब नही चाहिए?’

क्षेत्रमणि कुछ देर चुपचाप देखता रहा, फिर कहा-‘जितनी उम्र बढ़ती जाती है, उतना ही सौन्दर्य भी बढ़ता जाता है।’

वह चला गया। चन्द्रमुखी आज बहुत दिनो बाद फिर खिड़की पर आकर बैठी। एकटक रास्ते की ओर देखती रही। यही उसका काम है, यही करने वह आयी है। जितने दिन वह यहां रहेगी उतने दिन यही करेगी। कोई-कोई नये आदमी आना चाहते थे, द्वार ठेलते थे, किन्तु उसी समय केवलराम कहता था‘यहां नही आना।’

पुराने परिचित लोगो मे से यदि कोई आता तो चन्द्रमुखी बैठकर, हंस-हंसकर बाते करती। बात-ही बात मे देवदास की बात पूछता। जब वे न बता सकते, तो उदास मन से विदा कर देती। रात अधिक बीतने पर स्वयं बाहर निकल जाती थी। मुहल्ले-मुहल्ले, द्वार-द्वार घूमती-फिरती छिपकर लोगो की बाते कान देकर सुनती, कुछ लोग अनेको प्रकार की बाते करते थे, किन्तु वह जो सुनना चाहती थी, वह कही नही सुन जाती थी। आते-जाते हुए लोगो मे से वह बहुतो को देवदास समझकर पास जाती थी, किन्तु जब किसी दूसरे को देखती थी तो धीरे से लौट आती थी। दोपहर के समय वह अपनी पुरानी साथिनो के घर जाती। बात-ही-बात मे पूछती-‘क्यो, देवदास के विषय मे भी कुछ जानती हो?’

वह पूछती-‘कौन देवदास?’

चन्द्रमुखी उत्सुक भाव से परिचय देने लगती-‘गोरा रंग है, सिर पर घुंघराले बाल है, ललाट के एक ओर चोट का दाग है, धनी आदमी है, बहुत रुपया खर्च करते है, क्या तुम पहचानती हो?’

कोई पता नही बता सकता था। हताश होकर उदास मन से चन्द्रमुखी घर लौट आती थी। बड़ी रात तक रास्ते की ओर देखती रहती थी। नीद आने पर विरक्त भाव से मन-ही-मन कहती-यह क्या तुम्हारे सोने का समय है?

इस तरह एक महीना बीत गया। केवलराम भी ऊब उठा। चन्द्रमुखी को स्वयं पर सन्देह होने लगा कि वे यहां पर नही है। फिर भी आशा-भरोसा मे दिन पर दिन बीतने लगे।

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